काश! मैं भी जूता व्यवसाई होता तो............

काश! मैं भी जूता व्यवसाई होता तो............


-भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी/ मित्रों यह वर्षों पूर्व की बात है जो मुझे अब बहुत ही प्रासंगिक लग रही है। यही कोई 45 वर्ष (1970) का वाकया है। मैं स्टूडेण्ट था लखनऊ से घर के लिए शियालदा ट्रेन से आ रहा था। मुझे मेरे छात्र- मित्र ‘सी ऑफ’ करने चारबाग रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर आए थे। आते भी क्यों न........उसी दिन मैंने अमीनाबाद में स्थित बालूजा शू कम्पनी से एक नया जूता जिसकी कीमत 75/- थी लिया था। उस जूते के उद्घाटन में मित्रों को सिनेमा और जमकर लंच करवाया था। इस तरह कुल मिलाकर मेरा 250/- रूपया खर्चा हुआ (जूते की कीमत जोड़कर)। मैंने नए जूते को ही पहन रखा था। सभी मित्र तारीफ भी कर रहे थे मैं अन्दर ही अन्दर बहुत खुश हो रहा था। खैर- ट्रेन आई और उस पर सवार हो गया- छूटने के वक्त तक सभी छात्र मित्र साथ थे।
ट्रेन ने प्लेटफार्म छोड़ा साथियों ने हाथ हिलाकर गुड बाय एण्ड हैप्पी जर्नी बोला था। ट्रेन ने गति पकड़ा और गोमती पुल पार कर बाराबंकी की तरफ अपनी रफ्तार से चलने लगी। मेरे सामने की सीट पर एक नखलउवा सज्जन लुंगी पहने बैठे थे। उन्होंने मुझसे पूँछा बेटा यह जूती कहाँ से और किस दुकान से लिया? उनकी यह बात सुनकर मुझे गुस्सा आ गया था। मुझे गुस्सा इसलिए आया कि मैं जूता खरीदा था और वह सज्जन इसे जूती कह रहे हैं। मेरे तमतमाए चेहरे को देखकर उन्होंने कहा बेटा गुस्सा मत करो हमारे नखलऊ की जुबान में जूती ही बोला जाता है। इतना कहकर उन्होंने कहा बेटा बुरा मत मानो, उठो मेरे साथ आओ। ट्रेन अपनी रफ्तार से चल रही थी मैं उक्त सज्जन के पीछे टेªन के डिब्बे के गलियारे से होता हुआ अन्तिम छोर पर बने दोनों शौचालयों के निकट आ गया। उन्होंने दोनों शौचालय खोले और बीच का गलियारा दिखाया। मैंने देखा था कि उन सभी स्थानों में जूतों के डिब्बे भरे हुए थे।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि उस स्थान पर वे मुझे किस लिए लाए हैं? बहरहाल इसी बीच उक्त सज्जन ने गलियारे में रखे हुए डिब्बों को दिखाते हुए मुझसे कहा कि तुम कोई एक डिब्बा इसमें से निकालो मैंने वैसा ही किया। फिर उनके कहने पर मैंने जब डिब्बे को खोला तो देखा कि जिस जूते को मैंने पहन रखा था उसी तरह का जूता डिब्बे में पैक करके रखा गया था। उन्होंने मुझको बताया कि यह सारा माल वह बनारस किसी पार्टी के आर्डर पर ले जा रहे हैं। बात-बात में ही उक्त सज्जन ने डिब्बे सहित जूते की जोड़ी की कीमत 7 रूपए बताया। इतना सुनना था कि मुझे पसीना आ गया। थोड़ी देर पश्चात हम दोनों पूर्व की भाँति ट्रेन के डिब्बे में आमने-सामने बैठे हुए थे। उस सज्जन ने मेरे बारे में जब जान लिया तो कहा कि जब कभी तुम्हें नौकरी न मिले तब तुम जूते की ही दुकान करना।
इसमें लागत कम और मुनाफा कई गुना है। अब यही देखो कि 7 रूपए की दर से हमने नखलऊ के जूते की बड़ी-बड़ी दुकानों में माल सप्लाई किया है, उन्हीं के कहने पर इसमें लेबल भी चस्पा किया है। उन्हीं दुकानों पर से स्टूडेण्ट कनशेसन के साथ 7 रूपए के जूते को तुमने 75 रूपए में खरीदा है। पढ़े-लिखे हो मुनाफे के बारे में तुम खुद सोच लो कितना लाभ है। जूता और जूती के अन्तर को भी समझा था और तत्समय दी गई उक्त सज्जन की नसीहत को भी सुना था। परन्तु उस नसीहत को मान नही सका। अब 45 वर्ष बीत जाने पर जब पैसों की आवश्यकता आ पड़ी तब उक्त लुंगीधारी नखलउवा चचाजान की याद आ रही है और यही सोच रहा हूँ कि काश मैं भी जूते की दुकान कर लिए होता तो........। 
-भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

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