यह आवश्यक है कि हर कथाकार की कथा-रचना को व्यापक दृष्टि से देखा-परखा जाए। शंभु पी. सिंह की सारी कहानियाँ अपने परीक्षण के लिए इसी व्यापक दृष्टि की माँग अपने पाठ के समय करती हैं। इसलिए कि शंभु पी. सिंह ने मनुष्य के जीवन को बेहद क़रीब से देखा-परखा है। मनुष्य-जीवन को देखने-परखने का इनका अपना तरीक़ा है। अब इनकी कहानी 'मर्द' को ही लीजिए। यह झालो दाय की जीवन-कथा है। यह कहानी उस झालो दाय की है, जिसका चीर-हरण ख़ुद उसके चचेरे भाई ने किया है। फिर जिसे झालो के दूर के चाचा, जिसे वह रघु चाचा कहती थी, उस चाचा ने भी झालो का चीर-हरण किया। यह कहानी मर्दजाति की स्त्रीजाति के साथ सदियों से चली आ रही चीर-हरण-परंपरा की कहानी है और झालो बेचारी इस अनूठी परंपरा की साक्षी। यही सच है कि पुरुष का मन किसी स्त्री को लेकर आज भी 'शुद्ध' नहीं हुआ है। पुरुष द्वारा अपने 'शुद्ध मन' की घोषणा बार-बार की जाती रही है ताकि एक स्त्री पुरुष की इस घोषणा से बार-बार छली जाती रहे : पिछली बार तक तो हम तीनों भाई-बहन कमरे में ही सोते थे और मामा-मामी बरामदे पर पड़े दो खाट पर। इस बार थोड़ा परिवर्तन दिखा। मामी ने बरामदे के एक खाट मेरा बिछावन लगा दिया और दूसरा शायद अपने लिए। लेकिन मेरे से बातें करते-करते भाई भी अपनी माँ की खाट पर सो गया।
अपने बेटे का प्रतिरोध करना मामी के बस में नहीं था। मामा-मामी घर के अन्दर सोने चले गए। देर तक हम दोनों बचपन के संगी-साथियों की चर्चा करते रहे। नींद ने कब अपना साम्राज्य फैला दिया, पता ही नहीं चला। अचानक मैं एक भारी वज़न से अपने-आपको दबा पाई। आँखें खुलीं, जब तक कुछ बोल पाती, दरिंदे के पंजे ने मुझे इस क़दर जकड़ रखा था कि मैं छटपटाती रह गई, लेकिन न तो एक शब्द मुँह से निकल पाया और न ही मैं उसके पंजे से मुक्त हो पाई ( 'मर्द', पृ. 25-26)। आप इस कहानी को पढ़कर यह महसूस सकते हैं कि झालो जैसी कितनी ही लड़कियाँ दरिंदे रूपी पुरुष के पंजे में घड़ी की टिकटिक के साथ छटपटाती हैं और विडंबना देखिए कि इसका इल्ज़ाम उस पुरुष दरिंदे पर न जाकर सामाजिक पंचायतें झालो जैसी लड़कियों पर ही डाल देती हैं और पुरुष दरिंदा किसी और झालो दाय का शिकार करने निकल पड़ता है, बिना डरे, बिना झिझके, बिना आत्मग्लानि के। लेकिन एक स्त्री जब विरोध पर उतारू हो जाए, आमादा हो जाए, उद्यत हो जाए तो पहलवान-से-पहलवान आदमी भी उस स्त्री के सामने घिघयाने लगता है। इस कहानी में झालो अंतत: यही करती है और पुरुष दरिंदा झालो के आगे अपनी नापाक ज़िंदगी की भीख माँगता दिखाई देता है। संग्रह की एक और कहानी 'बायोलॉजिकल नीड्स' की प्रज्ञा ने अपने से अधिक उम्र के प्रोफ़ेसर अनुपम की देह का इस्तेमाल अपनी देह की इच्छाओं को पूरी करने के लिए किया। शंभु पी. सिंह का यह कथन, 'कि कथा-कहानियों, सरकारी घोषणाओं, न्यायायिक व्यवस्थाओं में आज तक सिर्फ़ स्त्री-देह के दोहन की बातें ही अनुपम के ज़ेहन में थीं, लेकिन पहली बार वह ख़ुद ही इसका मोहरा बन चुका था। पुरुष तो आख़िर पुरुष है, न तो मर्यादा लाँघते देर लगती है और न ही स्खलित होते ( 'बायोलॉजिकल नीड्स', पृ. 35)।' इस यथार्थ के बावजूद मनुष्य-समाज में झालो दाय की सँख्या अनगिन है और प्रज्ञा जैसी स्त्री की कुछेक। परन्तु शंभु पी. सिंह का यह कमाल है कि इस कुछेक संख्या वाले स्त्री-समूह तक पर अपनी पैनी दृष्टि रखते हैं और अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं। शंभु पी. सिंह की कहानियों का विशेष महत्व इस अर्थ में भी है कि इनकी कहानियाँ समय के साथ चलती हैं। यह कहानियाँ आत्मतोष के लिए लिखी गई कहानियाँ नहीं हैं। संग्रह की अन्य कहानियों, यथा- 'जनता दरबार', 'कफ़न के बाद', 'खेल-खेल में', 'तृष्णा', 'तोहफ़ा', 'मिस्ड कॉल के इंतज़ार में', 'सिलवट का दूध', 'भूख', 'इजाज़त', 'अगली बार', का यथार्थ उतना ही मारक है, जितना कि हम 'एक्सीडेंट', 'मर्द' और 'बायोलॉजिकल नीड्स' कहानियों में पाते हैं। इन कहानियों में शंभु पी. सिंह एक सजग, एक सच्चे, एक अनुभवी कथाकार के रूप में स्पष्ट प्रकट होते हैं।
'कफ़न के बाद' शीर्षक कहानी मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'कफ़न' के बाद के परिवेश पर फ़ोकस करती है। शंभु पी. सिंह अपनी इस कहानी के माध्यम से यह बताने की कोशिश करते हैं कि समय ज़रूर बदला है, लोगों का रहन-सहन भी बदला, पर समस्याएँ जस-की-तस वैसी ही बनी हुई हैं। लोगों की ईमानदारी अब भी उतनी ही ख़तरे में पड़ी दिखाई देती है, जितनी मुंशी प्रेमचंद के ज़माने में ईमानदारी ख़तरे में पड़ी हुई थी। यानी बेईमानी एक ऐसी परंपरा है, जो इस पृथ्वी के बचे रहने तक ख़त्म नहीं होने वाली। इसलिए कि बेईमानी व्यवस्थाजनित है और जब व्यवस्था ख़ुद बेईमानी कर-करके अपने को जीवित रखती है, तो इस व्यवस्था का हिस्सा बने राजनेता, अधिकारी, कर्मचारी, पुलिस, व्यवसायी ख़ुद को ईमानदार बनाए रखकर क्या करेंगे और क्यों करेंगे भला? भाई मेरे, ईमानदारी घाटे का सौदा जो है। फिर सारा पाप धोने के लिए बेचारी गंगा अविरल बहती चली आ ही रही है...गंगा में कुछ डुबकियाँ मारो और आपके सारे पाप ग़ायब! इस संग्रह की कहानी 'खेल-खेल में' भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच के समय अपने सहिष्णु देश की जो हालत हो जाती है, कथाकार ने उसी सहिष्णुता का वीभत्स चित्रण किया है, एकदम बेबाक होकर। जबकि 'तृष्णा' कहानी का ताना-बाना प्रेम के त्रिकोण पर है। यह संग्रह की लंबी कहानी है। यह उस प्रेम की कहानी है, जिस प्रेम में प्रेम की तृष्णा बाक़ी रह जाती है। 'तोहफ़ा' कहानी भी अधूरे प्रेम की कहानी है। 'मिस्ड कॉल के इंतज़ार में', 'सिलवट का दूध', 'इजाज़त' आदि कहानियाँ पठनीय हैं। 'जनता दरबार' शीर्षक कहानी, जो संग्रह का भी शीर्षक है, वर्तमान व्यवस्था पर गहरे जाकर चोट करती है। पूरा सच यही है कि जो व्यवस्था सर्वहारा के लिए बनती है, वही व्यवस्था सर्वहारा वर्ग को लूटकर, पीटकर और पटककर अपने ज़िंदा होने का आभास कराती रहती है। हमारा आज का परिवेश ऐसा ही है और हम जिस परिवेश को जीते चले जा रहे हैं, इसकी पहचान ऐसी ही है, जिसमें आज की व्यवस्था हमें रोज़ मारती है, रोज़ हमारा अस्तित्व धूमिल करती है, रोज़ हमारी धज्जियाँ उड़ाती है। शंभु पी. सिंह की कहानियों में यही सब चित्रित हुआ है। वह भी बिलकुल किसी आईने की तरह साफ़।
दरअसल शंभु पी. उस कैफ़ियत के कथाकार हैं, जिस कैफ़ियत में कोई जब तक अपने भीतर हाहाकार मचा रहे विचारों को बाहर नहीं निकाल लेता, लिखकर क़लमबंद नहीं कर लेता, उसे सुकून हासिल नहीं होता। इसीलिए शंभु पी. सिंह ऊर्जा संपन्न कथाकारों की फ़ेहरिस्त में रखे जाते हैं। यह ऊर्जा संपन्नता इनकी कहानियों में साफ़-साफ़ दिखाई भी देती है। शंभु पी. सिंह दीर्घकालिक समय तक कथा-समय में बने रहने वाले कथाकर हैं। कथाकार शंभु पी. सिंह के पास कहानी कहने का अपना ढंग है, अपनी शैली है, अपना रंग है। शंभु पी. सिंह की जो ख़ासियत मुझे प्रभावित करती है, वह यह कि ये शांत रहकर कथारत रहते हैं और कई असाधारण कहानियाँ हमें सौंपते हैं। इनकी कहानियों में ख़ुद इन्हीं का समय बोलता-बतियाता है और इनके पात्रों का समय रेखांकित करता है। यही वजह है कि डा. खगेंद्र ठाकुर जैसे महत्वपूर्ण आलोचक इनकी कहानियों को 'पैने यथार्थ-बोध की कहानियाँ' कहते हैं और 'नई धारा' के संपादक डा. शिवनारायण ने इन्हें 'अपने पाठकों में प्रतिरोध की शक्ति को जन्म देता है', का कथाकार कहते हैं। शंभु पी. सिंह जिस सहजता, विनम्रता, व्यावहारिकता के पैरोकार हैं, यह सबकुछ पूरी कुशलता से अपनी कहानियों में दर्ज भी करते जाते हैं। और किसी कथाकार में यह सब गुण कथाकार के सर्वगुण-संपन्न होने का द्योतक भी है। उल्लेखनीय है कि शंभु पी. सिंह अपने समय के जिस कठिन दौर को जी रहे हैं, उस कठिन दौर को परदे से बाहर भी ला रहे हैं। शंभु पी. सिंह अपनी कहानियों के माध्यम से जहाँ वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध तीखा प्रहार करते हैं, वहीं उनका नायक प्रेम को भी बचाने का प्रयास करता है और इनकी नायिका पुरुष-वर्चस्व का विरोध दर्ज करती हैं। यह सब मिलकर शंभु पी. सिंह को एक नायाब प्रखर कथाकार घोषित करता है, इसमें संदेह नहीं।
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'जनता दरबार' ( कहानी-संग्रह ) / कथाकार : शंभु पी. सिंह / प्रकाशक : संस्कृति प्रकाशन, प्रथम मंज़िल, मिश्रा कॉम्प्लेक्स, ईशाकचक, नज़दीक भोलानाथ पुल, भागलपुर-812001, बिहार / मोबाइल : 09334166909 / मूल्य : Rs. 300
समीक्षक संपर्क : शहंशाह आलम, प्रकाशन विभाग, कमरा सँख्या : 17, उपभवन, बिहार विधान परिषद्, पटना-800015 / 09835417537