- डा. रवीन्द्र अरजरिया
दुनिया में नफरत की आग तेजी से फैल रही है। वर्चस्व की जंग हवा देने वाले अब धर्म की आड लेकर सुल्तान बनना चाहते है। गुलामी के इतिहास को दोहराने की कबायत चल रही है। लूट, बलात्कार, हत्या जैसे अपराध, अब आम हो चले हैं। कानून का डर जाता रहा है। कभी मानवाधिकार के नाम पर तो कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देकर अपराधियों को उनके आका बचा ले जाते हैं। कानूनी प्रक्रिया का उलझाव भरा रास्ता जहां बेहद लम्बा है वहीं उसकी अस्पष्ट नीतियां भी घातक बनती जा रहीं हैं।
जघन्न अपराधियों के लिये देर रात तक न्यायालयों को खोला जाता है। अनेक अदालतों से दोषी करार हो जाने के बाद भी फांसी जैसा दण्ड को टालने की कोशिशें की जातीं हैं। कानून के जानकार न्याय की लचीली व्यवस्था के तहत उलझाव भरे दावपेंच खेलते रहते हैं। ऐसे में अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हो गये हैं कि सार्वजनिक स्थानों पर धडल्ले से अपराध घटित होते हैं और अपराधी बेखौफ होकर फरार हो जाते हैं। न्यायालय परिसर हो या पुलिस कार्यालय, प्रशासनिक अधिकारियों का आवासीय क्षेत्र हो या फिर अतिविशिष्ट लोगों का रिहायसी इलाका, कहीं भी सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती।
लालबत्ती पर भी रईसजादों के फर्राटे भरते वाहन, एकल मार्ग पर विपरीत दिशा से आने वाले खद्दरधारियों और अधिकारियों की गाडियां, नो पार्किंग में लाल तख्ती वाले दुपहिया-चौपहियों की भरमार जैसे दृश्य देश के कोने-कोने में देखे जा सकते हैं। व्यवस्था के नाम स्थापित विभागों के अधिकांश अधिकारी-कर्मचारी वेतन के अलावा सुविधा शुल्क कमाने या अपनों को लाभ दिलाने में लगे रहते हैं। ऐसे में धर्म के नाम पर वैमनुष्यता परोसकर सत्ता की चाहत रखने वाले षडयंत्रकारियों को राजनैतिक दलों की आंख का तारा बना दिया है। जनबल को वोटबल में प्राप्त करने की चाहत रखने वाला खद्दरधारी समाज पहले असामाजिक तत्वों को बढावा देता हैं, उन्हें क्षेत्र का दबदबेदार बनाता हैं और फिर क्षेत्रवासियों को आतंक के साये में होंठ सिलकर मतदान करने हेतु विवस करता हैं।
इतिहास गवाह है कि अमेरिकी संरक्षण में किलकारी मारने वाला लादेन एक दिन उसी का काल बनकर सामने आया चुका है। वर्तमान समय में विश्व का सबसे घातक देश बनकर उभरने वाला ब्रिटेन अपनी नीतियों-रीतियों से समूचे विश्व पर साम्राज्य स्थापित करने की कल भी चाहत रखता था, आज भी रखता है और शायद कल भी रखेगा। दुनिया भर के भगोडे अपराधियों की शरणगाह के रूप में चर्चित यह गोरों की दुनिया हमेशा से ही फूट डालो-राज करो का सिध्दान्त अपनाती रही। यहां की विभाजनकारी मानसिकता ने मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौध्द, यहूदी जैसे धर्मों के कट्टरपंथियों को सहयोग, सहायता और सलाह देकर उग्रवादी बनाया। यही उग्रवादी बाद में आतंकवादी और फिर अलगाववादी बनते चले गये।
ब्रिटेन की राह पर ही अमेरिका चल निकला। उसने भी असामाजिक मानसिकता वाले लोगों को अपराधी बनाया। भौतिक संसाधनों की आदत डाली। अघोषित राजा बनाकर गुलामों की फौज के सलाम दिलवाये। लालच की मृगमारीचिका के पीछे दौडा दिया। भौतिकता के मोहपाश में न आने वालों को मरने के बाद की किवदंतियों के सहारे सब्जबाग दिखाये गये। गाजी और शहीद की परिभाषायें समझाई गईं। मुस्लिम युवाओं को गुमराह करने के लिए गाजी यानी इस्लाम के नाम पर लोगों की जान लेने वालों तथा शहीद यानी इस्लाम के नाम पर जान देने वालों की जमात तैयार की जा रही है। इन्हें समझाया जा रहा है कि जो मुसलमान सामान्य तौर पर मरता है उसे कयामत तक कब्र में ही अपने गुनाहों के हिसाब का इंतजार करना पडता है किन्तु गाजी और शहीदों को तत्काल जन्नत नसीब होती है। उनको कयामत तक का इंतजार नहीं करना पडता।
इस सबक को मनोवैज्ञानिक ढंग से इबादत के दौर में समझाया जाता है। दुनिया भर में क्रूरता की चरम सीमा पर मुस्लिम युवाओं को बैठाने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं। धनी मुस्लिम देशों से जकात और फितरा के रूप में निकाली जाने वाली भारी भरकम धनराशि का कथित रूप से मदरसों, इस्लाम के प्रचार-प्रसार और मानवता के उपयोग करने का प्राविधान है परन्तु उस पैसे का अधिकांश धरातली उपयोग आज आतंक, अलगाव और आजादी के नाम पर किया जा रहा है। दुनिया भर में आतंक की जडों के नीचे मुस्लिम विस्तारवादी सोच, हुकूमत करने की जिद और गुलामों पर जुल्म करके मनोरंजन करने की मानसिकता स्थापित है जो कभी सामाजिक भूकम्प बनकर सामने आती है तो कभी व्यवस्था पर ज्वालामुखी बनकर टूट पडती है।
बहाने तलाशे जाते हैं, उकसाने की कोशिशें होतीं है और फिर साम्प्रदायिकता का रंग देकर सामूहिकता के नारे बुलंद होने लगते हैं। अंग्रेजों की धरती पर क्रिकेट मैच के बहाने मंदिर पर हमला हुआ, भगवां झंडा उखाड दिया गया। फ्रांस में ईश निन्दा की अफवाह फैलाकर हत्यायें की गईं। पाकिस्तान में तो जब चाहें तब इस्लाम की तौहीनी बताकर गैर मुस्लिम समाज को निरंतर कुचला जा रहा है। कभी शरणार्थी बनकर आने वाले लोगों का कुनवा आज जुल्म करने वाला वर्ग बनकर खडा हो गया है। मानवता की दुहाई पर सिर छुपाने के लिए गिडगिडाने वाले आज देश के नागरिकों के सिरों से छतें छीन रहे हैं। ऐसे लोगों के संगठित गिरोहों को वोट के लालची लोग निरंतर खुले आम संरक्षण देते रहे हैं जो आज भी बदस्तूर जारी है।
निश्चित ही यह सब भारत में सर्वाधिक हो रहा है परन्तु पूरी दुनिया में भी इससे मिलती जुलती ही स्थितियां हैं। चीन, उत्तरी कोरिया जैसे देश अवश्य अभी तक आतंक के शिकंजे से अपेक्षाकृत मुक्त हैं। इसका कारण है वहीं की एक देश-एक नीति। तुष्टीकरण जैसे शब्द वहां गौड हो गये हैं। राष्ट्र हित ही वहां सर्वोपरि है। धर्म, सम्प्रदाय, रीति-रिवाज जैसे कारकों को नागरिकों के निजिता की सीमा ही कैद कर दिया गया है। जीवन जीने का ढंग व्यक्तिगत होता है, उससे समाज को प्रभावित नहीं किया जा सकता किन्तु स्वाधीनता के बाद तुष्टीकरण के आधार पर निर्मित किये गये संविधान का खामियाजा आज तक भुगत रहा है देश। संविधान के अनेक पक्षपात पूर्ण प्राविधानों का परिणाम है आतंक। जब तक नागरिकों को समान आचार संहिता का वरदान नहीं मिलेगा, तब तक जुल्म की दास्तानों का अंत असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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