बनारस में यहीं गूंजी बिस्मिल्लाह खान की शहनाई, धनेसरीबाई ने चंद्रशेखर आजाद को बचाया था

बनारस में यहीं गूंजी बिस्मिल्लाह खान की शहनाई, धनेसरीबाई ने चंद्रशेखर आजाद को बचाया था

दालमंडी…बनारस की एक बेतरतीब सी गली, मगर यहां की फिजा में रौनक और रुआब है, मस्ती है और दिलफेंक आशिकी भी। वैसे इसके नाम पर ताे कतई मत जाइएगा। यहां दाल की मंडी जैसा अब कोई बाजार नहीं लगता।




बाबा विश्चनाथ मंदिर के पास ही स्थित दालमंडी की संकरी गली में कदम रखते ही ऐसा लगेगा जैसे आप दिल्ली के पालिका बाजार या जयपुर के बापू बाजार या भोपाल के चौक बाजार में पहुंच गए हों। गली की शुरुआत में मोबाइल की दुकानें हैं, मगर जैसे-जैसे अंदर चलते जाएंगे, यहां हर ओर लड़कियों-महिलाओं के लिए ड्रेसेज, जूतियां या पर्स बिकते नजर आएंगे।


शाम 6 बजे के करीब हम दालमंडी वाली गली में पहुंचे तो हमें इसका नाम एक स्ट्रीट बोर्ड पर लिखा दिखा- हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग। लोगों की जुबान पर दालमंडी नाम भले ही हो, मगर, बनारस के सरकारी कागजों से दालमंडी नाम गायब है। ऐसा क्यों, यह भी जानेंगे। आज यहां की करीब 200 साल पुरानी इमारतों में रंगरोगन होकर कॉस्मेटिक्स और इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकानें सजी हैं।


इस दालमंडी की कहानी जितनी पुरानी है, उतने ही चमकते-दमकते किस्सों से भी भरी है। तो चलिए अब आपको इसी मशहूर दालमंडी के फ्लैशबैक में ले चलते हैं। बनारस शहर के बनने की कहानी 3500 साल से ज्यादा पुरानी है, इसकी गिनती स्कंद पुराण में बताई गई सप्त पुरियों में होती है। शहर बना तो गलियां भी विकसित हुईं। दालमंडी गली भी कहीं कम पुरानी नहीं है।


उस जमाने में यहां बनने वाले घर या इमारतें लाल बलुआ पत्थर से बनती थीं। ये तत्कालीन बनारस का हिस्सा रहे मिर्जापुर के चुनार से आते थे। इन ईंटों और पत्थरों की जुड़ाई सुर्खी और चूने से होती थी। यही वजह थी कि ये इमारतें बरसों बाद आज भी उतनी ही मजबूती से खड़ी हैं।


अंग्रेजों से पहले ये बाजार क्या था, उनके आने के बाद क्या बदला, सबसे पहले इसी से रूबरू हो लेते हैं। लेकिन इसके पहले ये ग्राफिक देख लेते हैं जिनसे पता चलेगा कि कैसे 21 घरानों के बीच बनारस घराने की तूती बोलती थी। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) में प्रोफेसर केके मिश्रा बताते हैं कि बनारस घराने के मशहूर तबला वादक पंडित किशन महाराज ने 1986 में सन्मार्ग में एक लेख लिखा-’संगीत की जननी है काशी।’ जिसमें उन्होंने कहा है कि मुगलों के जमाने से भी पहले से दालमंडी एक बाजार के रूप में विकसित हुई।


16वीं सदी में यह बाजार फेमस हो चला था। यह मंडी बनारस के संगीत घरानों का शुरुआती रूप रहा है। प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम, मुंबई के डायरेक्टर रहे डॉ. मोतीचंद ने अपनी किताब ’काशी का इतिहास’ में बताया है कि दालमंडी में कभी दालों का कारोबार हुआ करता था। बनारस के रईस यहां दाल का कारोबार करते और शाम होते-होते यहां मनोरंजन भी करते। उस वक्त यहां पर भांड़ मंडली हुआ करती थी, जो इन रईसों का मनोरंजन नाच-गाकर करती।


मुगलों की आखिरी पीढ़ी के जमाने में यह दालमंडी पास ही में विशेसरगंज में शिफ्ट हो गई और दालमंडी में गाने वाले, नाचने वाले और कलाकार बसने लगे। लेखक विश्वनाथ मुखर्जी अपनी किताब ‘बना रहे बनारस’ में बताते हैं कि 18वीं सदी के आसपास यहां संगीतकार, शास्त्रीय संगीत की साधना करते थे। दालमंडी में रईस लोग शाम के समय कान में इत्र में डूबी रुई रखकर, सफेद बनारसी ड्रेस पहनकर, मुंह में पान की गिलौरी और साथ में पीकदान भी लेकर चलते थे और दालमंडी में संगीत का आनंद लेते थे। तब बनारसी लोग पान खाकर इधर-उधर थूका नहीं करते थे।


यहीं से सितारा देवी और बागेश्वरी देवी जैसी हस्तियां निकलीं। बाद में जब अंग्रेज आए तो उन्होंने यहां पर तवायफों को बसाना शुरू किया, जहां जमींदार, रईसजादे और अंग्रेज लोग मनोरंजन के लिए आया करते। अंग्रेजों के आने बाद इस इलाके का रूप बिगड़ गया। एक समय में पूरे पूर्वांचल को दाल मुहैया कराने वाली दालमंडी का नाम इसी दौरान ‘डॉलमंडी’ भी हो गया। इसकी वजह है कि अंग्रेज तवायफों को ‘डॉल’ कहते थे। इस वक्त भी यहां दालें बिका करतीं। 18-19वीं सदी में दालमंडी में तवायफों का बसना शुरू हुआ। कुछ ही दशकों में बनारस की इस गली में अलग-अलग राग गाए जाने लगे। 


बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से पढ़े और इसी मार्केट में रेडीमेड कपड़ों की दुकान चलाने वाले 75 साल के तनवीर हसन के जेहन में आज भी पुरानी दालमंडी की यादें और किस्से ताजा हैं। वह बताते हैं- इस गली में नीचे दुकानों में दाल का कारोबार होता और ऊपरी मंजिल के बंद दरवाजों के बाहर तक तवायफों के घुंघरुओं, तबले की थाप और कसक में डूबी आवाज गूंजतीं।


दुकानों के ऊपर बने कोठे शाम गहराते-गहराते मुजरे की आवाज से गुलजार हो जाया करते। कहीं से वाह-वाह सुनाई पड़ता तो कोई नजर चुराकर गुजरता दिख जाता। लेकिन आज इन गलियों में सजी मोबाइल की एक दुकान पर हमें पाकीजा फिल्म का मशहूर गाना सुनाई दिया- इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्‌टा मेरा। मगर, आज इन गलियों में सुर, साज और आवाज सभी खामोश हैं।


अब न कोठे रहे न तवायफें, दो मंजिला इमारतों में घर-गृहस्थी चल रही हैं और नीचे ब्राइडल वेयर और कॉस्मेटिक का इतना बड़ा कारोबार जहां दूसरे इंसान से टकराए बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते। 70 के दशक में इस इलाके को खाली कराए जाने से तवायफें बनारस के एक और मोहल्ले शिवदासपुर में जाकर बस गईं, जहां आज भी उन्हें आसपास के कई इलाकों के लोगों का विरोध झेलना पड़ता है।



कहते हैं कि आधुनिक हिंदी के अगुवा भारतेंदु हरिश्चंद्र भी दालमंडी की इसी गली की एक नर्तकी मल्लिका के दीवाने थे। वह जब-तब उससे मिलने आ ही जाया करते। तौकीबाई, हुस्नाबाई, बॉलीवुड अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दनबाई, छप्पन छुरी के नाम से चर्चित जानकीबाई, गौहरजान, रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी, विद्याधरी, ये सभी नाम पूरे देश में मशहूर थे और आज भी हैं। इनका ऐसा जलवा था कि ये अपनी प्रस्तुति देने बग्घी या डोली पर बैठकर जातीं। राजे-रजवाड़ों के जमाने में राजा और राजपुरोहित के बाद केवल राजनर्तकी ही अपने साथ चंवर और राजदंड ले जा सकती थीं।


बड़ी बात यह है कि दालमंडी में कभी देह का सौदा नहीं होता था। यहां केवल संगीत और नृत्य की ही साधना हुआ करती थी। तनवीर बताते हैं कि पद्मा खन्ना, नरगिस, गोविंदा जैसी हस्तियों का यहां से नाता रहा है। दालमंडी में कुछ दूर तक चलने के बाद दाईं ओर एक और गली खुलती है, जहां से कुछ कदम पर एक नई गली नजर आती है। इसे सराय हड़हा कहते हैं। यही गली भारतरत्न बिस्मिल्लाह खां साहब के घर तक ले जाती है।


इसी पुराने से मकान की तंग सीढ़ियों से हम उस कोठरी तक पहुंचे, जहां एक चौकी पर खां साहब की शहनाई रखी हुई है। पास बजते रिकॉर्ड से खां साहब की पसंदीदा धुन हवा में तैर रही थी। ऐसा लगा कि खां साहब रियाज कर रहे हैं। उनके पौत्र नासिर अब्बास बिस्मिल्लाह कहते हैं कि बाबा अक्सर शाम को हमें बुलाते और कहते- ‘अरे भाई ऐसे ही क्यों बैठे हो, चलो सुर में कुछ बतिया लिया जाए।’ और फिर घंटों रियाज चलता।


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