कौन था बैरम खां जिसने मुगल सल्तनत बचाई, हुमायूं का सच्चा दोस्त और अकबर का संरक्षक बना?

कौन था बैरम खां जिसने मुगल सल्तनत बचाई, हुमायूं का सच्चा दोस्त और अकबर का संरक्षक बना?

हुमायूं की मौत के बाद अकबर की ताजपोशी और दिल्ली में वापस कब्जा करने के लिए बैरम का नाम इतिहास में दर्ज हुआ. बैरम हुमायूं का सबसे विश्वसनीय था, लेकिन यह विश्वास यूं नहीं बढ़ा.



बैरम खां का नाम मुगल इतिहास में बड़े सम्मान के साथ दर्ज किया गया. इसकी कई वजह थीं. उनका कनेक्शन मुगलों की दो पीढ़ियों से था- हुमायूं और अकबर से. भारत में मुगलिया सल्तनत में को बचाने में बैरम का अहम रोल रहा. हुमायूं की मौत के बाद अकबर की ताजपोशी और दिल्ली में वापस कब्जा करने के लिए बैरम का नाम इतिहास में दर्ज हुआ. बैरम हुमायूं का सबसे विश्वसनीय था, लेकिन यह विश्वास यूं नहीं बढ़ा. इसके पीछे पारिवारिक विरासत भी रही है.


बैरम खां का नाम मुगल इतिहास में बड़े सम्मान के साथ दर्ज किया गया. इसकी कई वजह थीं. उनका कनेक्शन मुगलों की दो पीढ़ियों से था- हुमायूं और अकबर से. भारत में मुगलिया सल्तनत में को बचाने में बैरम का अहम रोल रहा. हुमायूं की मौत के बाद अकबर की ताजपोशी और दिल्ली में वापस कब्जा करने के लिए बैरम का नाम इतिहास में दर्ज हुआ. बैरम हुमायूं का सबसे विश्वसनीय था, लेकिन यह विश्वास यूं नहीं बढ़ा. इसके पीछे पारिवारिक विरासत भी रही है.


बैरम खां का ताल्लुक तुर्क जनजातीय से था. इनके पिता और दादा बाबर के साम्राज्य से जुड़े थे. उस विरासत को आगे बढ़ाते हुए पिता सैफ़ अली बेग के बाद बैरम खां भी बाबर के दरबार में शामिल हुए.


बैरम को साहित्य और संगीत से खास लगाव था. साहित्य और संगीत से जुड़ी दिलचस्प जानकारियों के कारण वह जल्द ही हुमायूं का करीबी बन गया. बाबर की मौत के बाद दोस्ती और गहरी हो गई. हुमायूं ने गुजरात के चांपानेर में जब किला फतह किया तो बैरम खां उनके साथ मौजूद थे. इतना ही नहीं, चौसा में शेरशाह सूरी से जंग लड़ते वक्त भी बैरम ने हुमायूं का साथ नहीं छोड़ा. कन्नौज की जंग में भी बराबर से खड़े रहे. इन घटनाओं ने हुमायूं ओर बैरम के बीच की दोस्ती को मजबूत किया.


1556 में हुमायूं की मौत के बाद मुगल साम्राज्य पर खतरा मंडराने लगा. हुमायूं की मौत के बाद मुगल साम्राज्य की ही कई लोग बैरम के खिलाफ साजिश रचने लगे. यह वो समय था जब बैरम सबसे ज्यादा चुनौतियों से जूझ रहे थे. उसी दौर में सूरी वंश के सिकंदर शाह सूरी की नजर मुगल साम्राज्य पर थी और शाहजादे अकबर की रक्षा करने की जिम्मेदारी भी का भी दायित्व था. उस समय अकबर गुरदासपुर ज़िले में कलानौर के कैंप में थे और उम्र थी 13 साल.


आनन-फानन में 14 फरवरी 1556 में अकबर की ताजपोशी की घोषणा की गई. इतिहासकार और अकबर नवरत्नों में शामिल रहे अबुल फज़ल ने ‘अकबरनामा’ में लिखा है, हुमायूं की मौत के बाद बैरम खां ने जिस चबूतरे पर अकबर की ताजपोशी की उसे तख़्त-ए-अकबर नाम दिया गया. उस दौर में बैरम को वकील-उस-सल्तनत का दर्जा मिला हुआ था, ये मुगल सल्तनत के सबसे ओहदे में शामिल था. अकबर को शहंशाह घोषित करने के बाद बैरम खां ने मुगल सेना की बागडोर संभाली.


लेखक टी. सी. ए. की किताब अटेंडेंट लॉर्ड्स के मुताबिक़, साल 1561 में जनवरी की आखिरी शाम कोबैरम खां की गुजरात में हत्या हुई. हत्या कररने वाला मुबारक खान लोहानी था, जिसके पिता को 1555 में माछीवाड़ा की लड़ाई में मुगलों ने मार डाला था. अकबर की जीवनी ‘अकबरनामा’ में लिखा गया है कि लोहानी बैरम खां का सम्मान करने के लिए उसके गले लगा. इस दौरान उसने खंजर से ऐसा वार किया कि खंजर छाती से पार हो गया. बैरम की लाश स्थानीय लोगों को मिली. इसका जिक्र गुजरात के पाटन में सहस्रलिंग तालाब के पास लगे हुए आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के साइन बोर्ड में किया गया है.

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