आईपीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी ने कहा है कि जिलाधिकारी की पूर्व अनुमति का उद्देश्य दलितों की जमीन को आसानी से खरीदने से रोकना था, ताकि उनकी जमीन उनके पास बची रहे।
प्रदेश में नई टाउनशिप नीति में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की भूमि लेने के लिए जिलाधिकारी से अनुमति लेने की अनिवार्यता खत्म करने के प्रस्ताव पर सियासत शुरू हो गई है। सपा व कांग्रेस के साथ कुछ संगठनों ने इस पर आपत्ति जताई है। ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) ने सरकार के इस फैसले को दलितों को भूमिहीन बनाने की साजिश करार दिया है।
आईपीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी ने कहा है कि जिलाधिकारी की पूर्व अनुमति का उद्देश्य दलितों की जमीन को आसानी से खरीदने से रोकना था, ताकि उनकी जमीन उनके पास बची रहे। अनुमति की अनिवार्यता खत्म होने से इसकी पूरी संभावना है कि दलितों की जमीन दूसरे लोग लालच या दबाव से खरीद लेंगे और दलित तेजी से भूमिहीन हो जाएंगे।
उन्होंने कहा कि सपा सरकार ने दलितों की जमीन केवल दलितों द्वारा खरीदे जाने की शर्त को खत्म किया था। इसके बाद बड़ी संख्या में दलितों की जमीन बिक गई थी। उन्होंने सरकार से डीएम से अनुमति लेने की बाध्यता खत्म करने संबंधी फैसला वापस लेने की मांग की है।
वहीं, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष शाहनवाज आलम ने कहा है कि उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन व भूमि सुधार अधिनियम 1950 के तहत कांग्रेस सरकार ने दलितों को ज़मीन का मालिक बनाने और उनके जमीनों की रक्षा के लिए यह कानून बनाया था। जिससे दलितों को दिए गए जमीन के पट्टे उनसे ऊंची जातियों के लोग नहीं छीन पाते थे।
दलितों के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण में इस कानून का सबसे बड़ा योगदान है। अब प्रदेश सरकार फिर से दलितों की जमीनों पर कब्जा दिलाने के लिए इस कानून को बदल रही है। अब भाजपा के लोग दलितों की जमीन धमकाकर लिखवा लेंगे।
सपा एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्य ने ट्वीट के जरिए सरकार के इस फैसले पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि सरकार ने अपने ही बनाए कानून को ठेंगा दिखाया है। उन्होंने इस फैसले को दलित विरोध बताते हुए निंदा की है।
