आधुनिक युग में पुस्तकों, संदर्भ-ग्रंथों और शोध-पत्रिकाओं का नितांत अभाव होता जा रहा है। विकल्प के रूप में नेट का प्रचलन निरंतर तेज होता जा रहा है। ऐसे में संकलित सामग्री की प्रमाणिकता पर अनेक प्रश्नचिन्ह अंकित होन लगे है। अपुष्ट सूत्रों से जुटाई गई सामग्री को भी अनियंत्रित नेट पर डालकर, विद्वता का तमगा लगाने वालों की कमी नहीं है। हमें अपने चैनल में विशेष प्रसारण हेतु प्रमाणित संदर्भों की आवश्यकता थी। संस्था के संबंधित विभाग ने जिन संदर्भों के आधार पर प्रोजेक्ट तैयार किया था, उसकी प्रमाणिकता मांगने पर उन्होंने नेट की अनेक अनजानी लिंक प्रस्तुत की गई। उन लिंक में भी प्रकाशित किये गये आलेखों का कोई प्रमाणित संदर्भ नहीं था। ऐसी परिस्थिति में समाधान हेतु हमारे जेहन में प्रो. आनन्द प्रकाश सक्सेना का चेहरा उभर आया। प्रोफेसर सक्सेना लम्बे समय से जरनल आफ इनवायरमेंट एण्ड सोसल साइंस रिसर्च का सम्पादन कर रहे है। तत्काल उन्हें फोन लगाकर मिलने की इच्छा व्यक्त की।
यूं तो वह हमारे सहपाठी अम्ब्रीश कुमार सक्सेना के बडे भाई है परन्तु आज हमने उन्हें नेट से संकलित सामग्री की प्रमाणिकता हेतु आमंत्रित किया था। क्यों कि वे विभागाध्यक्ष (वनस्पति विज्ञान) के पद से सेवानिवृत होने का बाद से निरंतर शोधकार्यों, अनुसंधानों और नवागन्तुक वैज्ञानिकों को मार्गदर्शन देने में व्यस्त रहते हैं। निर्धारित समय पर हम आमने सामने थे। नेट से संकलित सामग्री का अवलोकन करने के बाद उन्होंने अनेक विरोधाभाषी तथ्यों को रेखांकित किया। गहराई से अध्ययन के उपरांत उन्होंने प्रोजेक्ट रिपोर्ट से लेकर स्क्रिप्ट तक को विभिन्न शोधों, वर्तमान उपलब्धियों और व्यवहारिक मान्यताओं की नींव पर खडा कर दिया। हमने नेट के इस दौर में प्रमाणिकता की स्थिति पर उनकी राय जाननी चाही। तनिक गम्भीर होकर उन्होंने कहा कि 80 के दशक के बाद वास्तविक शोध करने और कराने वालों की खासी कमी होती गई।