-रामविलास जांगिड़
सिंदबाद जहाजी ने प्रेस रिलीज में कहा कि मुझे सात यात्राओं में काफी समस्याएं और परेशानी हुई। लेकिन फिर भी मेरा इरादा नहीं टूटा और मैं आठवीं यात्रा करने के लिए अपनी कार में सैनिटाइजर और मास्क डालकर सफर पर निकल पड़ा। इस बार चीन से अफगानिस्तान होते हुए दिल्ली जिसे दिलवालों की कहा जाता है, वहां पहुंच गया। कहां पहुंच कर कार का लंगर डाला और दिल्ली के भीतर घुस गए। धीरे-धीरे उस इलाके में पहुंच गया जो संसद भवन और इंडिया गेट कहलाता है।
कहते हैं कि इंडिया गेट स्मारक नई दिल्ली में राजपथ मार्ग पर स्थित है। यह इंडिया के भारत की विरासत के रूप में जाना जाता है। इसके आसपास राजनीति का घना कोहरा छाया हुआ रहता है। मैंने देखा कि यह शहर बड़ा अजीब किस्म का था। यहां सभी लोग राजनीति का धंधा करते थे। पेट पालने से लेकर ऐसो आराम करने के लिए यहां पर राजनीति के अलावा कोई दूसरा धंधा न था। सभी व्यक्ति राजनीति के धंधे में घनघोर लिप्त थे। राजनीतिज्ञ कोरोना व मास्क पर भयंकर ग़दर मचा रहे थे।
शहर का हर आदमी अपने-अपने ढंग की छोटी से लेकर बड़ी राजनीति ही किया करता। बदकिस्मती से कोई राजनीति नहीं करता तो वह देश सेवा के धंधे में लिप्त पाया जाता। अंततः देश सेवा के धंधे में राजनीति ही लिप्त होती थी। एक दूसरे पर राजनीतिक कीचड़ उछालने का भी राष्ट्रीय कार्यक्रम किया जाता था। राजनीति के धंधे में कई लोग अकेले-अकेले ही हुआ करते थे, तो कई लोग अलग-अलग ढंग की पार्टियां बनाकर राजनीति का भरपूर धंधा किया करते। अक्सर पूरे के पूरे परिवार ही चौबीसों घंटे राजनीति का धंधा करके अपना पेट पाला करते थे। जो राजनीति नहीं करते थे, वो राजनीति का शिकार हुआ करते।
इस तरह से शिकार और शिकारी एक दूसरे के साथ ही रहते। लेकिन शिकार को अक्सर धोखे में डालकर ही राजनीतिज्ञ नामक शिकारी अपनी भाषणों के तीर से उन्हें घायल कर दिया करते थे। ऐसे नगर में पहुंचकर मैंने एक किसी होटल में डेरा डाल दिया था। इस होटल के निकट ही किसी अन्य होटल में बाड़ेबंदी का राजनीतिक कार्यक्रम किया जा रहा था। होटल में रुक कर मैंने किसी नौकर को शहर में पान लेने के लिए भेजा। जब वह तीन घंटे तक नहीं आया तो उस नौकर को तलाशने के लिए फिर मैंने किसी एक अन्य नौकर को भेजा। जब वह भी नहीं आया तो मैंने उन दोनों को ढूंढ़ने के लिए एक और को भिजवाया। जब इनमें से कोई नहीं आया तो मैं मजबूर होकर हाथों में तलवार लिए उनकी तलाश में निकल पड़ा।
कोई 500 मीटर की दूरी चला ही था कि उन तीनों नौकरों को घेरे सैकड़ों राजनीतिज्ञों को देखा। वे अलग-अलग पार्टियों के झंडे लेकर उनको वोट देने के लिए उकसा रहे थे। कोई पार्टी उनको वादों की बातों से नहला रही थी, तो कोई उनको रोजगार की चासनी में डुबो रही थी। कोई सड़क बिजली के गीत गा रहा था, तो कोई मजदूर-किसान नाटक का मंचन कर रहा था। कोई पार्टी घोषणा पत्र का महाकाव्य सुना रहा था, तो कोई संकल्प पत्रों की महिमा गा रहा था। जैसे ही उनकी नजर मुझ पर पड़ी तो उनमें से कई पार्टी बाज मुझ पर टूट पड़े। एक कुख्यात पार्टी गिरोह ने मुझे पकड़ लिया।
देखते ही देखते उसकी गैंग के अन्य पार्टीखोर भी मुझ पर टूट पड़े। जल्दी ही सड़क किनारे खड़े किसी ट्रेलर के ड्राइवर को इशारा किया। उसमें उनकी पार्टी के रंग-रूप डिजाइन में लिपटे घोषणा पत्रों की हजारों हजार प्रतियां मुझ पर उछालना शुरू कर दिया। देशभक्ति का धंधा करने के लिए ये इसी प्रकार वादों-घोषणा पत्रों की बारिश मुझ पर करने लगे। मैं और मेरे साथी थरथर कांप रहे थे। जब मैंने अपना वोट उनको देने का वादा किया तो किसी तरह छूट सका। मैं भूखा-प्यासा वापस अपनी कार की ओर लौटकर घर आने की चेष्टा करने लगा। इस खतरनाक यात्रा के बाद आज का दिन है कि मैं कभी भी ऐसी किसी यात्रा पर नहीं निकला। सिंदबाद की यह अंतिम यात्रा ही रही।