प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा हैं भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं

प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा हैं भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं

हाल ही में तुर्किये-सीरिया में 7.8 तीव्रता के भूकंप से जहाँ सैकड़ों इमारतें ढ़ह गई, वहीं भूकंप में 5000 से लोगों की मौत हो गई। बताया जा रहा है कि इसमें पन्द्रह हजार से ज्यादा लोग जख्मी हुए हैं, इस भूकंप से सवा दो करोड़ से भी ज्यादा आबादी प्रभावित हुई है, और बचाव कार्य अभी भी जारी है। रह -रहकर अभी भी वहाँ भूकंप आ रहे हैं।






- सुनील महला 



 विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मृतकों की संख्या दस हजार से अधिक होने की आशंका जताई है। सीरिया में तो वैसे भी गृह युद्ध से वैसे भी हालात पहले से ही खराब है। हालांकि तुर्किये को भारत समेत विश्व के पच्चीस से ज्यादा देशों ने मदद मुहैया करवाई है लेकिन भूकंप से जिंदगी अस्त-व्यस्त हो गई है। तुर्किये को कई लाखों करोड़ों का आर्थिक नुक्सान हुआ है। भारत ने तीस बैड का फील्ड अस्पताल भी बनाया है और डॉक्टर्स की एक टीम भी वहाँ रवाना की गई है, वेंटिलेटर और दवाएं भेजी जा रही हैं। 



मलबे में अभी भी जिंदगियों की तलाश की जा रही है। हालात बहुत बुरे हैं। दक्षिणी तुर्किये व उत्तरी सीरिया में सबसे ज्यादा तबाही इस भूकंप से हुई है। यह अत्यंत गंभीर है कि एक दिन में ही वहाँ 78 से अधिक झटके आए। वास्तव में भूकंप कहीं न कहीं प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा कहा जा सकता है। प्रकृति से छेड़छाड़ करेंगे तो प्रकृति के प्रकोप के भयंकर परिणाम मानवजाति को भोगने ही पड़ेंगे, यह लगभग लगभग निश्चित ही है। हाल ही में भारत के उत्तराखंड राज्य के जोशीमठ में भी सैकड़ों घरों में व इमारतों में दरारें देखने को मिली और उत्तराखंड एक तरह से प्राकृतिक आपदा का सामना पिछले कुछ समय से कर ही रहा है। यहाँ पहाड़ निरंतर कमजोर हो रहे हैं। बेतरतीब निर्माण कार्यों, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, खनन, धरती का अनियंत्रित तरीकों से लगातार दोहन यह सब प्रकृति से सीधी छेड़छाड़ नहीं तो भला क्या है ? 



पिछले कुछ समय पहले हिमाचल प्रदेश के मंडी और जम्मू कश्मीर के डोडा व रामबन में भी घरों में दरारें पड़ने के मामले सामने आए। विकास की आड़ में प्रकृति का दोहन क्या किसी भी तरह से जायज व तर्कसंगत ठहराया जा सकता है ? तुर्किये-सीरिया में भूकंप हो या हमारे यहाँ पहाड़ों का खिसकना कराह तो मानवता ही रही है। इसमें कोई दोराय नहीं कि ग्लोबल वार्मिंग, अत्यधिक दोहन- उत्खनन, पेड़ों-पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई, ग्लेशियर का पिघलना, बाढ़, जंगलों में आग आदि के चलते धरती का संतुलन आज बिगड़ चुका है। कोरोना महामारी भी कहीं न कहीं प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा नजर आती है। 



विगत दो- तीन दशकों में धरती पर आपदाएं तेजी से बढ़ रही हैं। भूकंपों, भूस्खलन की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। भारत में ही धरती पर बढ़ते दबाव की वजह से जोशीमठ में जो सब हुआ है, वह किसी से छिपा नहीं है। भारत में ही कई जगह से दरारों की खबरें सामने आने लगी हैं। समय समय पर प्रकृति हमें चेतावनी भी देती है लेकिन हम विकास की अंधी दौड़ में, भौतिकता के चक्कर में प्रकृति के साथ हाथ से हाथ मिलाना भूला बैठे हैं। यहाँ जानकारी देना चाहूंगा कि भारत के नीचे स्थित भूगर्भीय प्लेट तुर्कीये जैसी संवेदशील नहीं है, लेकिन तब भी भारतीय प्लेट लगातार खिसक रही है और हिमालय की ऊंचाई बढ़ रही है। ग्लेशियरों का पिघलना लगातार जारी है। कभी सुनामी आ रही है तो कभी ओलावृष्टि, अतिवृष्टि होती है। 



जलवायु में बहुत ज्यादा परिवर्तन आ चुके हैं। चरागाह, वनों की संख्या में अभूतपूर्व कमी आई है। धरती का पारिस्थितिकीय तंत्र लगातार खराब होता चला जा रहा है। छोटे-छोटे भूकंप तो निरंतर दर्ज किए जा रहे हैं। आखिर इसका समाधान क्या है? दुनिया के देशों को मिलकर धरती व अपनी सुरक्षा के प्रबंध क्या नहीं करने चाहिए ? एक जगह आपदा आएगी, तो दूसरी जगह भी उसका दुष्प्रभाव तय है। जोशीमठ को ही देख लिजिए। अब हिमाचल प्रदेश व जम्मू कश्मीर में भी दरारें आ रही हैं। हाल ही में तुर्किये-सीरिया में जो भयंकर भूकंप आया है, वह हमें भी लगातार चुनौती दे रहा है।



 यूरोप की आपदा को एशिया भी  समझे और एशिया की आपदाओं को यूरोप भी गंभीरता से ले। जब भी ऐसी आपदा आए, तो मानव जाति साथ खड़ी हो जाए, इससे बेहतर और क्या है ? हमें प्रकृति के संरक्षण के लिए मिलकर एकजुटता दिखाते हुए आगे आना होगा और प्रकृति संरक्षण की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करना होगा, क्योंकि प्रकृति का संरक्षण करना एक सामूहिकता का विषय है। मनुष्य को यह चाहिए कि वह पशु-पक्षियों से प्रेरणा लें, जो प्रकृति को बिना कोई नुकसान पहुंचाये अपना जीवन सहज व शांत तरीकों से जीते हैं। मनुष्य को अपने स्वार्थ व लालच से बाज आना होगा और प्रकृति संरक्षण के लिए सहजता से जीवन जीना होगा। प्रकृति हमारी मां है और प्रकृति के संरक्षण बिना प्राणियों का कोई भी अस्तित्व नहीं है। मनुष्य को यह ध्यान रखना चाहिए किप्रकृति का सौंदर्य अद्भुत आह्लादकारी है। इस प्रकृति में नीली नदियां, खुला आसमान, पथरीले पहाड़, ज्वाला से धधकता ज्वालामुखी, ऊंचे-ऊंचे वनों के वृक्ष, समुद्र के जीव जंतु इत्यादि शामिल होते हैं। जो इसकी रूपरेखा को और भी सुंदर कर देते हैं। हमें इसकी सुंदरता को बिगाड़ना कतई नहीं है, हमें इसे बिगाड़ने का अधिकार ईश्वर ने कभी भी नहीं दिया है। 



भारतीय संस्कृति में, हमारे वेदों में पेड़, पौधे, नदी, पहाड़, समुद्र, हवा, पानी, अग्नि, धरती, पशु, पक्षी, चांद, तारे, सूरज आदि जो भी प्रकृति में उपलब्ध हैं, सबकी पूजा करने की सलाह दी गई थी। हमारे ऋषि-मुनि, संत-महात्मा यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि मनुष्य के आसपास जो भी उपलब्ध है उसको वह अपने लालच व स्वार्थ के वशीभूत होकर, पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगकर व आधुनिकता व विकास की चादर ओढ़कर अवश्य ही हानि पहुंचाएगा। इसलिए एक लंबे समय तक मनुष्यों की तरफ से प्रकृति की संभाल होती गई। जीवन से जुड़ी हर चीज प्रकृति से ही हमको मिल रही है। हमारे चारों ओर प्रकृति विद्यमान है, इसके बिना जीवन संभव व सरल हो नहीं सकता, लेकिन हमलोग इसके संतुलन को बिगाड़ते रहे तो भी कुछ समय बाद जीवन नहीं रह जाएगा।



 साफ है कि हम आने वाली पीढ़ियों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोच रहे हैं। यह हमारी बड़ी गलती है, जिसके लिए हमारी पीढ़ियां हमें निश्चित रूप से कोसेगी। हमें हर हाल में प्रकृति की रक्षा के लिए एक मुहिम चलानी होगी, जिसमें हर व्यक्ति अपने स्तर से जो भी प्रकृति के लिए कर सके उसे वह जरूर करना चाहिए। हमें अपने परिवार के सदस्यों और मित्रों, रिश्तेदारों, पड़ौसियों को भी इस हेतु जागरूक करना होगा। प्रकृति के लिए जितना भी हम करेंगे, वह हमेशा ही थोड़ा ही होगा, क्योंकि हमने प्रकृति से जन्म के साथ ही लेना शुरू कर दिया था और मरते समय तक लेते ही रहेंगे। हमने प्रकृति से हमेशा से छीना ही छीना है, प्रकृति को दिया कुछ भी नहीं। हम केवल और केवल प्रकृति से मांगते ही है। 


मानव की इच्छाएं असीमित हैं, कभी पूरी नहीं होने वाली। जनसंख्या भी लगातार बढ़ ही रही है और प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद में बड़े सुंदर शब्दों में कहा गया है कि-'पर्यावरण अपने जीवन को पूरी तरह से जीने वाले लोगों को आनंद प्रदान करता है। नदियाँ हमें पवित्र जल से आनंदित करती हैं और हमें स्वास्थ्य, रात, सुबह, वनस्पति प्रदान करती हैं। सूर्य हमें शांतिपूर्ण जीवन का आनंद देता है। हमारी गायें हमें दूध देती हैं।' संस्कृत में कहा गया है कि-'पर्यावरणनाशेन नश्यन्ति सर्वजन्तव:।पवन: दुष्टतां याति प्रकृतिविकृतायते ।।' यानी कि ⁣हमारे पर्यावरण के प्रदूषण (विनाश) के कारण सभी प्राणी नष्ट हो जाते हैं, हवाएं ख़राब हो जाती हैं और प्रकृति शत्रुतापूर्ण हो जाती है।⁣ इसलिए आइए हम प्रकृति की हर हाल में रक्षा का संकल्प लें और मानवजाति को बचाएं।



(आर्थिक का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)

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