विस चुनाव-2022 : जब नगीचे चुनाव आवत है, भात मांगा पुलाव पावत है....

विस चुनाव-2022 : जब नगीचे चुनाव आवत है, भात मांगा पुलाव पावत है....


चुनाव के परिप्रेक्ष्य में मरहूम सादानी और स्वर्गीय राजन की कविताएँ आज भी प्रासंगिक

चुनाव जीतने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद का प्रयोग जारी

नाचै, गावै, तोरै तान, वही कै दुनिया राखै मान ऐसे भी हैं प्रत्याशी


-रीता विश्वकर्मा

चुनाव प्रचार का अन्तिम चरण चल रहा है। माहौल एक दम अपने शबाब पर है। सभी प्रत्याशी सीट हथियाने के लिए सभी पैतरे आजमा रहे हैं। साम, दाम, दण्ड, भेद का प्रयोग जारी है। इस चुनावी मंजर में समर्थक, पक्षधर और चुनिन्दा मतदाताओं को प्रत्याशियों द्वारा तवज्जो दिया जाना कोई नई बात नहीं।  

मरहूम रफीक सादानी की वो पंक्तियां याद आ रही हैं, जिनमें उन्होंने चुनाव के आगाज का सार कहा है। जब नगीचे चुनाव आवत है। भात मांगा पुलाव पावत है.....। मतलब यह कि लोकतन्त्र का महापर्व चुनाव और इसमें क्षेत्र व जन प्रतिनिधित्व करने के लिए खड़े कैण्डीडेट्स के लिए हर आम खास इस मौके पर महत्वपूर्ण हो जाता है। इस चुनाव में हमारे यहाँ के हालात बिल्कुल उसी तरह हैं जैसे सालों पहले व्यंग्यकारों, कवियों व शायरों ने चुनाव को लेकर कहा है।

हमने क्षेत्रों में जाकर करीब से चुनावी सर्वेक्षण किया है। क्षेत्रों की आम खास जनता से भेंट किया है। पुरूष और महिलाओं से वार्ता की है। गांव के चौपाल, डगर और चौराहों पर एकत्र भीड़ को देखा व सुना है। हमने पाया है कि गांव के लोगों को इस चुनाव में अरवा-भुजिया चावल की जगह पुलाव और बिरयानी खाने को मिल रहा है। 

रफीक सादानी साहब बराबर याद आ रहे हैं। कृश्काय लोगों के चिपके पेटों में पुलाव जाने पर जो आनन्द उन्हें मिल रहा है वह भले ही क्षणिक हो लेकिन उनके लिए अविस्मर्णीय ही लग रहा है। हालांकि एकाध मीटिंग इस तरह का पुलाव और बिरयानी खाने वाले लोगों को यह नहीं ज्ञात है कि उनका एक वोट कितना कीमती है। 

गाँव की चौपालों में मेड़ों और डगरों से होते हुए पहुँचने वाले प्रत्याशियों के समर्थकों की भौतिक/शारीरिक स्थिति देखने में बड़ा अजीब महसूस होता है। ये लोग अपने आपे में नहीं दिखते। इन पर मदिरा का सुरूर देखा जा रहा है। गाँव की चौपालों में एकत्र लोग चुनावी वार्ता करते-करते इतने उत्तेजित हो जा रहे हैं कि मार-पीट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। 

पुलाव, बिरयानी और मदिरा उदरस्थ करने वाले लोग अपने ही भाई-बन्धुओं से झगड़ा-झंझट करते देखे जा सकते हैं। माई मीठ कि खाई मीठ? यहाँ इन भूखे व जरूरतमन्दों के लिए बाप बड़ा न मइया सबसे बड़ा रूपइया......। जिसने दिया उसकी जयकार, और उसी को वोट करने की खाई जा रही कसमें। स्वास्थ्य, शिक्षा, विकास, रोजगार जैसा कोई मुद्दा नहीं। जातिवादी प्रत्याशियों और धनबलियों द्वारा दिया गया प्रलोभन रूपी आर्थिक इमदाद ही सर्वोपरि। 

फागुन का महीना, चुनाव का मौसम, गरीबों के घरों में भी कट रही है नून-गुदुरी। क्यों न हो भला। इस तरह का चुनाव बार-बार नहीं आता। पंचायत और परधानी इलेक्शन के बाद प्रदेश की राजधानी स्थित पंचायत में पहुंचने हेतु होने वाला यह चुनाव आखिर पाँच साल बाद आया है। और फिर पाँच साल बाद ही आयेगा इंशा अल्लाह। ले लो देने वाले जो दे रहे हैं। कत्तई मना न करो। वोटर हो, एकाध महीने ही तुम्हारी कदर रहेगी। मतदान करने के बाद तुम्हारी बेकदरी तुम स्वयं ही नहीं सभी लोग देखेंगे। अपनी पीड़ा तुम्हारे जैसे लोग आसन्न प्रसवा माताओं की तरह भूल जाते हैं। ऐसा तुम करते आये हो। कोई नई बात नहीं है। वर मरै या कन्या। पण्डित जी को दक्षिणा से मतलब। तुम्हारी भी स्थिति ठीक उसी पण्डित जी की तरह है। ऊपर से तुर्रा यह कि कोउ नृप होय हमैं का हानी, चेरि छाड़ि होबै न रानी......। (मंथरा, कैकेयी संवाद) 

वाह! क्या सोच है आजाद देश के स्वतंत्र मतदाताओं की। लगभग 75 सालों बाद अब भी अशिक्षा और अज्ञानता के तिमिर में आवृत्त गरीबी और भूख से व्यथित, दिग्भ्रमित आम आदमी की सोच गजब है। 

हमने प्रत्याशियों पर नजर डाला है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का आंकलन किया है। हमें चुनावी मौसम में ये सभी शिकारी, मदारी, जुआरी और भिखारी के ही रोल में नजर आते हैं। ऐसा इसलिए कि ये चुनाव के समय ही गाँव गिरांव और मतदाताओं के बीच वोट लेने के लिए पहुँचते हैं। इनके समर्थकों जिन्हें गुर्गा कहना उचित होगा हर स्थान पर जहाँ इनको पहुँचना है पूर्व में ही पहुँचकर वहाँ एक प्रायोजित माहौल बना देते हैं। भीड़ एकत्र करते हैं, और गरीब मतदाताओं में हमदर्दी दिखाकर उनका दिल जीतने का प्रयास करते हैं। प्रत्याशियों के दांव-पेंच एकदम से अभिनेताओं की तरह होते हैं। बेवजह ही इनको लोग नेता कहते हैं। वास्तव में ये वर्सेटाइल परसनैलिटी वाले अभिनेता होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हमारे देहात मे कहा जाता है कि ‘नाचै, गावै, तोरै तान....वही कै दुनिया राखै मान.......। यहां बता दें कि अनेकों चुनावी प्रत्याशी ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी राजनैतिक शुरूआत करने के पहले नाटक, नौटंकी और रामलीलाओं में मंचन करने के साथ-साथ वाद्य यन्त्रों पर अपनी उंगलियां फेरकर संगीतमय वातावरण प्रस्तुत किया है। 

राजेन्द्र राजन जिन्होंने चुनाव, प्रत्याशी और आम जनता का जो खाका खींचा है वह हर आने वाले, होने वाले चुनाव में आज भी प्रासंगिक लगता है। हालांकि स्वर्गीय राजन ने यह व्यंग्य कविता 40 साल पहले लिखी और मंचीय काव्य सम्मेलन में पढ़ी थी। यहाँ हम उन्हीं की कविता का उल्लेख कर रहे हैं। सुधी पाठकों से अपेक्षा की जाती है कि वे मरहूम रफीक सादानी साहब और स्वर्गीय राजेन्द्र राजन जैसे कवियों की रचनाओं की प्रासंगिकता पर अपनी टिप्पणी अवश्य करेंगे। हमने तो बस एक सम-सामयिक आलेख लिखकर प्रस्तुत किया है। इस आलेख को लिखने की प्रेरणा हमें कविद्वय सादानी, राजन और चुनावी परिदृश्य, महासंग्राम में खड़े योद्धा व आम जनता की स्थिति देखने के बाद मिली। 

स्वर्गीय राजेन्द्र राजन की कविता-

आने वाले हैं शिकारी मेरे गाँव में, जनता है चिन्ता की मारी मेरे गांव में............। 

फिर वही चौराहे होंगे, प्यासी आंख उठाये होंगे, सपनों भीगी रातें होंगी, मीठी-मीठी बाते होंगी, मालाएं पहनानी होंगी, फिर ताली बजवानी होंगी, दिन को रात कहा जायेगा, दो को 7 कहा जायेगा। आने वाले हैं मदारी मेरे गांव में, जनता है चिन्ता की मारी.................।

शब्दों-शब्दों आहें होंगी, लेकिन नकली बाहें होंगी, तुम कहते हो नेता होंगे, लेकिन वो अभिनेता होंगें, बाहर-बाहर सज्जन होंगे, भीतर-भीतर रहजन होंगे, सब कुछ है फिर भी मांगेगें, झुंकने की सीमा लाघेंगे, आने वाले हैं भिखारी मेरे गांव में, जनता है चिन्ता की मारी..............।

उनकी चिन्ता जग से न्यारी, कुर्सी है दुनिया से प्यारी, कुर्सी है तो भी खलकामी, बिन कुर्सी के भी दुष्कामी, कुर्सी रस्ता, कुर्सी मंजिल, कुर्सी नदिया, कुर्सी साहिल, कुर्सी पर ईमान लुटायें, सब कुछ अपना दांव लगायें, आने वाले हैं जुआरी मेरे गांव में, जनता है चिन्ता की मारी मेरे गांव में........। (रेनबोन्यूज फीचर सेवा)

रीता विश्वकर्मा, 8423242878

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