रंगो से सरोबार होती है राजस्थान में होली

रंगो से सरोबार होती है राजस्थान में होली


रमेश सर्राफ धमोरा

रंगो का पर्व होली का नाम सुनते ही हर उम्र के व्यक्तियों के चेहरे पर खुशियां दिखने लगती हैं। देश के हर प्रदेश में होली का पर्व अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। मगर राजस्थान में होली मनाने का अलग ही अंदाज दिखता है। होली के अवसर पर राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में कईं तरह के आयोजन किए जाते हैं। होली के विविध रंग देखने में आते हैं। राजस्थान की लोक परंपराओं और प्रथाओं में फाल्गुन मास के अल्हड़ लोकगीत और चंग की थाप अपना एक अलग ही महत्व रखते हैं। मस्ती और छेड़छाड़ भरे लोकगीतों के स्वर उस समय अधिक सुरीले हो जाते हैं। जब घुंघरू की झंकार के साथ चंग की थाप में मस्तानों की टोलियां झूमती नजर आती हैं। राजस्थान के मंदिरों में होली पर रंग-गुलाल के साथ फाग उत्सव का आयोजन किया जाता है। जयपुर के इष्टदेव गोविंद देव मंदिर में रंगो से सरोबार नजारा देखने लायक होता है।

मेवाड अंचल के भीलवाड़ा जिले में शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लठमार होली का अपना एक अलग ही मजा रहा है। माहेश्वरी समाज के स्त्री-पुरूष यह होली खेलते हैं। डोलचियों में पानी भरकर पुरूष महिलाओं पर डालते हैं और महिलाएं लाठियों से उन्हें पीटती हैं। यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है, वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौडगढ़ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है। इसमें लकड़ी की सीढी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाजार में निकालते हैं। इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते हैं। लोग इन्हें रंगों से नहला देते हैं।

बीकानेरी होली का सबसे आकर्षण का केन्द्र होता है। पुष्करणा समाज के हर्ष व व्यास जाति के बीच खेला जाने वाला डोलची। पानी का खेल डोलची चमड़े से बना एक ऐसा पात्र है जिसमे पानी भरा जाता है व जोरदार प्रहार के साथ सामने बाले की पीठ पर इस पानी को मारा जाता है। बाड़मेर में पत्थर मार होली खेेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली लोग बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। हाड़ोती क्षेत्र के सांगोद कस्बे में होली के अवसर पर नए हिजड़ों को हिजड़ों की जमात में शामिल किया जाता है। इस अवसर पर बाजार का न्हाण और खाड़े का न्हाण नामक लोकोत्सवों का आयोजन होता है। खाडे के न्हाण में जम कर अश्लील भाषा का प्रयोग किया जाता है।

भरतपुर के ब्रजांचल में फाल्गुन का आगमन कोई साधारण बात नहीं है। ब्रज के गांव की चैपालों पर ब्रजवासी ग्रामीण अपने लोकवाद्य बम के साथ अपने ढप, ढोल और झांझ बजाते हुए रसिया गाते हैं। डीग क्षेत्र की ग्रामीण महिलाएं अपने सिर पर भारी भरकम चरकुला रखकर उस पर जलते दीपकों के साथ नृत्य करती हैं। संपूर्ण ब्रज में इस तरह आनंद की अमृत वर्षा होती है। यह परम्परा ब्रज की धरोहर है। बरसाने, नंदगांव, कामां, डीग आदि स्थानों पर ब्रज की लऋमार होली की परम्परा आज भी यहां की संस्कृति को पुष्ट करती है। चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा भी प्रसिद्ध है। ब्रहृमानगरी पुष्कर की कपड़ा फाड़ होली ने देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी धाक जमा ली है। यहां विदेशी सैलानियों के साथ स्थानीय और देशी पर्यटक बड़ी धूमधाम के साथ होली खेलते हैं और एक दूसरे के कपड़े भी फाड़ते हैं।

शेखावाटी अंचल में होली एक सुप्रसिद्ध लोक पर्व है तथा इस पर्व को क्षेत्र में पूरे देश से अलग ही ढंग से मनाया जाता है। होली पर चंग पर गाई जाने वाली धमालों में यहां की लोक संस्कृति का ही वर्णन होता है। इन धमालों के माध्यम से जहां प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं को अपने प्रेम का संदेशा पहुंचाते हैं। वहीं श्रद्धालु धमालों के माध्यम से लोक देवताओं को याद कर सुख समृद्धि की कामना करते हैं। धमाल के साथ ही रात्रि में नवयुवक विभिन्न प्रकार के स्वांग भी निकाल कर लोगों का भरपूर मनोरंजन करते हैं। गांवों में स्त्रियां रात्रि में चैक में एकत्रित होकर मंगल गीत, बधावे गाती हैं।

शेखावाटी क्षेत्र में पुरुष चंग बजाते हुये नृत्य करते हैं। यह मुख्यतः होली के दिनों में किया जाता है। चंग को प्रत्येक पुरुष अपने एक हाथ से थाम कर और दूसरे हाथ से बजाते हुए वृत्ताकार घेरे में नृत्य करते हैं। घेरे के मध्य में एकत्रित होकर धमाल और होली के गीत गाते हैं। शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी है। परिवार में बच्चे के जन्म होने पर उसका ननिहाल पक्ष की और से होली पर बच्चे को कपडे और खिलौने देते हैं।

शेखावाटी में होली पर रात में गींदड़ नृत्य किया जाता है। गुजराती नृत्य गरवा से मिलता-जुलता गींदड़ नृत्य में लोग विभिन्न प्रकार की वेशभूषा में नंगाड़े की आवाज पर एक गोल घेरे में हाथ में डंडे लिए घूमते हुए नाचते हैं तथा आपस में डंडे टकराते हैं। प्रारम्भ में धीरे-धीरे शुरू हुआ यह नृत्य धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ता जाता है। इसी रफ्तार में डंडों की आवाज भी टकरा कर काफी तेज गति से आती है तथा नृत्य व आवाज का एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न हो जाता है। जिसे देखने वाला हर दर्शक रोमांचित हुए बिना नहीं रह पाता है।

इन नृत्यों की लोक परम्परा को जीवित रखने के लिए क्षेत्र की कुछ संस्थाएं विगत कुछ समय से विशेष प्रयासरत हैं। झुंझुनू, फतेहपुर शेखावाटी,रामगढ़ शेखावाटी, मण्डावा, लक्ष्मणगढ़, चूरू, बिसाऊ, लक्ष्मणगढ़ कस्बों का गींदड़ नृत्य पूरे देश में प्रसिद्व है। इसी कारण चंग व गीन्दड़ नृत्य का आयोजन शेखावाटी से बाहर अन्य प्रान्तो में भी होने लगा है। अगर होली के त्यौहार से लोक वाद्य चंग और धमाल को निकाल दिया जाये तो होली का त्यौहार बेजान हो जायेगा। चंग और धमाल को लोग होली पर्व की आत्मा मानते है। मगर अब यह परम्परा धीरे धीरे समापत होती जा रही है। राजस्थान में कालबेलिया समाज आज भी इस परंपरा को संजोए बैठा है। कालबेलिया जाति के लोग फाल्गुन मास में अपने गांव लौट कर चंग की थाप पर जश्न मनाते दिखाई देते हैं।

पहले होली का त्योंहार प्रेम पूर्वक मनाया जाता था। सब साथ मिलकर चंग पर धमाल गाते थे। लेकिन आजकल वो सब खत्म सा हो गया है। शराब के बढ़ते प्रचलन के कारण लोग कार्यक्रमों में आने से डरने लगे हैं। अब गांवों में भी पहले जैसा सामंजस्य नहीं रहा है। इसके अलावा ऑडियो कैसेटों के बढ़ते प्रचलन की वजह से इस पर्व की मौलिकता ही समाप्त होती जा रही है। यदि समय रहते व्याप्त हो रही कुरीतियों व शराब के चलन की समाप्ति का प्रयास नहीं किया गया तो यह पर्व अपना मूल रूप खो बैठेगा।


रमेश सर्राफ धमोरा

(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)

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