इन तीन बैंकों के निजीकरण का क्यों हो रहा है इतना विरोध?

इन तीन बैंकों के निजीकरण का क्यों हो रहा है इतना विरोध?


 देशभर की ट्रेड यूनियनें सोमवार, 28 मार्च से भारत बंद के तहत दो दिन की हड़ताल पर हैं. लेकिन आम आदमी की वित्तीय जरूरतों और लेन-देन की लाइफलाइन कहे जाने वाले सरकारी बैंकों की हड़ताल इसलिए अहम है कि 30 और 31 मार्च को वित्त वर्ष के क्लोजिंग डेज के चलते बैंकों में आम ग्राहकों से जुड़े काम नहीं होते. पिछले दो वीकेंड जोड़ लें तो लगातार छह दिनों तक बैंकों का सामान्य कामकाज प्रभावित होने वाला है. लेकिन बैंकों की इस हड़ताल में जो चीज सबसे ऊपर है, वह है निजीकरण का विरोध. हमने जानने की कोशिश की कि आखिरकार सरकार किन-किन बैंकों को निजी हाथों में देने की तैयारी कर रही है और इसके विरोध के पीछे की चिंताएं और वजहें क्या हैं.

वित्त वर्ष 2020-21 के आम बजट में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि सरकार IDBI बैंक के साथ दो और बैंकों का निजीकरण करेगी. हालांकि सरकार ने उन दो बैंकों के नाम औपचारिक तौर पर अब तक घोषित नहीं किए हैं. लेकिन बजट के एक महीने बाद ही ऐसी खबरें आईं कि सरकार ने चार बैकों को इसके लिए शॉर्टलिस्ट किया है. ये बैंक थे- बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया है. बाद में बताया गया कि नीति आयोग की एक कमेटी ने दो बैंकों -इंडियन ओवरसीज बैंक (IOB) और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (CBI) का नाम प्राइवेटाइजेशन के लिए सुझाया है ? फिलहाल सरकार ने आईडीबीआई बैंक में हिस्सेदारी बेचने की तैयारियां तेज कर दी हैं. केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री भागवत कराड ने पिछले हफ्ते संसद को बताया था कि सरकार बड़े निवेशकों को आकर्षित करने की दिशा में काम कर रही है.

प्रॉफिट में हैं तीनों बैंक ?

सवाल उठता है कि सरकार इन बैंकों को क्यों बेचना चाहती है ? क्या ये बैंक घाटे में हैं ? सरसरी नजर में हालिया वित्तीय नतीजों के आधार पर देखें तो तीनों ही बैंकों की माली हालत बहुत खराब नहीं दखती. 31 दिसंबर को खत्म तीसरी तिमाही में आईडीबीआई बैंक का नेट प्रॉफिट पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 53% बढ़कर 578 करोड़ रुपये हो गया. नेट इंटरेस्ट इनकम (NII) में भी काफी सुधार हुआ है. दूसरी ओर 1.71% का नॉन परफॉर्मिंग एसेट (NPA) भी काफी कम है. लेकिन यहां गौर करने वाली बात यह है कि बैंक का ग्रॉस एनपीए काफी ऊपर करीब 20.56% रहा है. यानी बैंक ने डूबे हुए लोन की भरपाई अपनी जेब से करते हुए प्रोविजनिंग पर खूब खर्च किया है, जिससे नेट एनपीए कम दिख रहा है. आईडीबीआई बैंक पांच साल पहले तक काफी विवादों में घिरा रहा. साल 2009 में विजय माल्या की कंपनी किंगफिशर को 1000 करोड़ रुपये का लोन मंजूर करने और बाद में उसका बहुत सा हिस्सा संकट में फंस जाने के बाद बैंक जांच के दायरे में आया था. बाद में साल 2017 में इसके कई अफसरों को सीबीआई ने गिरफ्तार किया था।

दूसरी ओर दिसंबर तिमाही में इंडियन ओवरसीज बैंक का नेट प्रॉफिट दोगुना होकर 454 करोड़ रुपये हो गया. वहीं सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का नेट प्रॉफिट 69% बढ़कर 279 करोड़ रुपये हो गया है. लेकिन शायद हालिया नेट प्रॉफिट ही पूरी सच्चाई बयां नहीं करते. आरबीआई ने इन दोनों बैंकों को Prompt Corrective Action यानी PCA फ्रेमवर्क में डाल रखा था. आरबीआई को जब लगता है कि बैंक के पास जोखिम का सामना करने के लिए पर्याप्त पूंजी नहीं है. लोन से आय नहीं हो रही या मुनाफा नहीं हो रहा तो वह ऐसे बैंकों को ‘पीसीए’ में डाल देता है. उसके बाद बैंक की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए तात्कालिक कदम उठाए जाते हैं. यह जानने के लिए आरबीआई ने कुछ इंडिकेटर्स तय किए हैं, जिनमें उतार-चढ़ाव से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि कौन सा बैंक पीसीए में डालने लायक है. इनमें नेट एनपीए और रिटर्न ऑन एसेट्स पर खास जोर होता है. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि हाल ही में आरबीआई ने जिन दो बैंकों को PCA फ्रेमवर्क से बाहर निकाला था, उसमें यूको बैंक के साथ इंडियन ओवरसीज बैंक भी शामिल है. यानी बैंक की माली हालत सुधर रही है.

खैर, अभी इन दोनों बैंकों के निजीकरण की औपचारिक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है, लेकिन जिस IDBI बैंक को लेकर सरगर्मियां तेज हैं, वहां कुछ और पचड़ा है. कहने को सरकारी यह बैंक असल में केंद्र सरकार के नियंत्रण से बाहर है. इसे पहले से ही प्राइवेटाइज्ड बैंक करार दिया जाता रहा है, क्योंकि बैंक में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी 45.48% ही है, जबकि 49.24% हिस्सेदारी लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (LIC) के पास है. हालांकि एलआईसी भी सरकारी कंपनी ही है, लेकिन IDBI बैंक का प्रबंधन केंद्र सरकार के हाथ में न होकर एलआईसी के पास है और रेग्युलेटर्स के पैमानों पर इसे निजी बैंकों के समकक्ष रखा गया है.

विरोध कर रहे कर्मचारियों का क्या कहना है?

बैंकों के निजीकरण का विरोध कर रहीं यूनियनों का कहना है कि इन बैंकों के निजीकरण की कोई वाजिब वजह नहीं है. कई बैंकों के मर्जर के बाद पहले ही सरकारी बैंकों की संख्या घट चुकी है. फिर भी सरकार अपने विनिवेश लक्ष्यों को पूरा करने के लिए किसी न किसी बहाने सरकारी बैंकों को निजी हाथों में जाने दे रही है ? ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कन्फेडरेशन (AIBOC) के नेशनल एडवाइजर सुनील कुमार से दी लल्लनटॉप को बताया-

”आईडीबीआई पहले पहले प्राइम लेंडिंग एजेंसी थी. बाद में उसे इन्फ्रास्ट्रक्चर में लगाया गया. दुनिया में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी सरकारी बैंक को इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के लिए समर्पित कर दिया गया. बाद में लोन डूबने लगे तो उसका असर दूसरे सरकारी बैंकों पर भी पड़ा. अब जब इन बैंकों की हालत थोड़ी सुधर रही है, इन्हें प्राइवेटाइज किया जा रहा है. सरकार आईडीबीआई बैंक को बहुत हद तक पहले ही प्राइवेटाइज कर चुकी है. लेकिन वह इस मुहिम के बाद भी रुकने वाली नहीं है, कई और बैंकों का नंबर भी आएगा”. 

सरकारी बैंकों के निजीकरण के विरोध के पीछे सबसे बड़ी चिंता नौकरियां जाने की है. देश में करीब 13 लाख बैंक कर्मचारी हैं, जिनमें लगभग 4.2 लाख प्राइवेट सेक्टर में हैं. लेकिन कॉरपोरेट कल्चर का नतीजा यह है कि प्राइवेट बैंकों में क्लर्क लेवल के पद सरकारी बैंकों के मुकाबले काफी कम हैं और लगातार घटते रहे हैं. ऐसे में निजीकरण के बाद संभव है कि छंटनी की सबसे बड़ी मार क्लर्क लेवल पोस्ट्स पर पड़े. प्राइवेट बैंकों में आरक्षण नहीं होने से भी पुराने कर्मचारियों के लिए नई नियुक्तिों पर भी असर होगा. अस्थायी और कॉन्ट्रैक्ट वाली नौकरियों का चलन बढ़ेगा. हमने जानना चाहा कि निजीकरण नौकरियों के लिए कितनी बड़ी चुनौती है ?
AIBOC के नेशनल एडवाइजर सुनील कुमार ने कहा,

“सबसे पहले तो आरक्षण खत्म होगा. इससे मौजूदा नौकरियों में आरक्षण श्रेणी से आए लोगों के प्रति निजी क्षेत्र का रुख क्या होगा, देखना होगा. बाकी लोगों पर भी छंटनी की तलवार लटकेगी. कॉरपोरेट प्रबंधन वीआरएस लाएगा. बैंकों में नई भर्तियां घट जाएंगी”

लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या सरकारी बैंकों में कामकाज आम ग्राहकों के लिहाज से संतोषजनक है. एक आरोप रहा है कि सरकारी बैंकों के कर्मचारी तेजी से कामकाज नहीं करते, वहीं प्राइवेट बैंकों में थोड़े ज्यादा शुल्क के साथ ही सेवाएं त्वरित गति से मिलती हैं? ऐसे में सरकारी बैंक प्राइवेट बैंकों से कैसे कंपीट कर सकते हैं. इस बारे में ट्रेड यूनियनों का कहना है कि सरकार ने जानबूझकर सरकारी बैंकों को प्राइवेट बैंकों से कम्पीट नहीं करने दिया. तमाम तरह की सरकारी योजनाओं के चलते सरकारी बैंकों में फुटफॉल ज्यादा रहता है. ग्रामीणों और गरीबों की सेवा का भार भी सरकारी बैंकों पर ही है. ऐसे में उन्हें अतरिक्त संसाधन मुहैया कराया जाए तो वे भी प्राइवेट बैंकों से मुकाबला कर सकते हैं.

एनपीए का बढ़ना भी निजीकरण की वजह!

सरकारी बैंकों के निजीकरण के पीछे एक और गंभीर समस्या को आधार बनाया जाता रहा है. वह है एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स का बढ़ना. एनपीए को आप इस तरह समझिए कि जब आप बैंक में पैसा जमा करते हैं, तो वह आपके लिए एसेट होता है, क्योंकि उससे आप ब्याज कमाते हैं. लेकिन वह जमा उस बैंक के लिए ‘लाइबिलिटी’ बन जाता है, क्योंकि उसे ब्याज देना है. लेकिन इसके ठीक उलट. जब बैंक किसी को लोन देता है, तो वह लोन बैंक का एसेट कहलाता है, क्योंकि उससे बैंक की कमाई होती है. जब किसी लोन पर लगातार तीन महीने तक किश्तें नहीं आतीं, तो वह लोन बैंक की नजर में नॉन-परफॉर्मिंग एसेट यानी एनपीए बन जाता है. मौटे तौर पर 3% नेट एनपीए को खतरे का निशान माना जाता है. जिस बैंक का एनपीए इससे ऊपर होता है, उसे स्वस्थ नहीं कहा जा सकता.

IDBI बैंक का नेट एनपीए तो 1.67% है, जो खराब लोन के मामले में बैंक की अच्छी सेहत की निशानी कही जा सकती है. बाकी दो बैंकों का एनपीए 4% से थोड़ा ऊपर है और पहले से बेहतर हुआ है. लेकिन एबीजी शिपयार्ड बैंक फ्रॉड के बाद एक बार फिर सरकारी बैंकों का एनपीए सुर्खियों में आ गया है. लेकिन दूसरी तरफ ट्रेड यूनियनों का कहना है कि विलफुल डिफॉल्ट और गलत इनसॉल्वेंसी लॉज के चलते भी बैंक फ्रॉड बढ़ा है. सरकार लोन रिकवरी के लिए सख्त कानून बनाने तो ऐसे मामले काबू हो सकते हैं.

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